लेख-निबंध >> कुछ पड़ाव, कुछ मंजिलें कुछ पड़ाव, कुछ मंजिलेंहेमन्त द्विवेदी
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पूर्व प्रकाशित संस्मरण सूटकेस में जिन्दगी और आगामी प्रकाशन हाउस अरेस्ट के बीच की कड़ी है यह किताब जिसे कुछ पड़ाव, कुछ मंजिलें नाम दिया गया है
पूर्व प्रकाशित संस्मरण सूटकेस में जिन्दगी और आगामी प्रकाशन हाउस अरेस्ट के बीच की कड़ी है यह किताब जिसे कुछ पड़ाव, कुछ मंजिलें नाम दिया गया है। इस तरह वह एक विश्रामस्थल है, जिसे लेखक ने संस्मरणात्मक निबन्ध भी कहा। जिन्दगी यहाँ कई रंगों में चित्रित हुई है। एलबम में प्राय: विशिष्ट रेखाचित्र। बाइस्कोप में दुनिया जहान की बातें। नोटबुक में रामकथा पर टीमें। सारांश यह है कि एक समूचे जीवन के कैनवास के कुछ रंगीन काले सफेद अंश को किताब की शक्ल दी गई है। एक ही पल में कुछ मिलता है। कुछ छूटता है। यह जद्दोजहद मानवीय चेतना पर भी बहुत अंकित होती है। अनगिनत अनदेखी, अनचाही या पसन्दीदा मंजिलें। फिल्म की रील की तरह खुलता मानवीय अस्तित्व। इसी अस्तित्व में सुख-दुख, राग-विराग, आईना से निराला साँस लेता जीवन। कुछ भी कह लें मानस-पटल पर जीवन की ढेरों तस्वीरें हैं। फोटो फिल्म से लेकर अध्यात्म तक आम बोलचाल की भाशा स्थिति के अनुरूप बदल जाती है। भाषा की यही रवानगी अपनी ओर आकृष्ट करती है। अपनी आदत के मुताबिक लेखक अपनी किताब पर कठोर परिश्रम करते हैं। यह किताब भी इसका अपवाद नहीं है।
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